यूपी की राजनीति में किस पार्टी की नैया पार लगाएंगे परशुराम

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यूपी की राजनीति में किस पार्टी की नैया पार लगाएंगे परशुराम

परशुराम के नाम पर पार्टियों वोटों में सेंध लगाने चलीं (प्रतीकात्मक तस्वीर).

ब्राह्मण समुदाय की कुल ताकत यूपी में 6-7% है. यदि ब्राह्मणों का भाजपा से मोहभंग भी हुआ तो पूरे तो नहीं अलग हो जाएंगे. यदि आधे अलग हुए तो 3%. इसमें भी यदि तीन पार्टियों कांग्रेस, सपा और बसपा में बंटे तो 1-1%. इस 1% से किसी का क्या भला होगा?

लखनऊ. क्या ब्राह्मण वोट बैंक में भारी बिखराव दिख रहा है? क्या ब्राह्मण अब ये सोचने लगे हैं कि वे 2022 के विधानसभा चुनाव (Assembly elections) में किसे वोट (Vote) देंगे? बात चाहे जो हो लेकिन, यूपी की सभी विपक्षी पार्टियों को शायद ऐसा लगने लगा है. तभी तो कांग्रेस, सपा और बसपा ने बारी-बारी से वे बातें बोलनी शुरू कर दी हैं, जिससे ब्राह्मण कम्यूनिटी को लुभाया जा सके. उन्हें लगता है कि ब्राह्मण समुदाय भाजपा से नाराज है और यही सही वक्त है उन्हें अपने पाले में करने का. सभी ने एक को ही सहारा बनाया है – परशुराम. लेकिन, इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है. कहीं ऐसा तो नहीं कि सपा, बसपा और कांग्रेस भाजपा के ट्रैप में फंस गई हैं. इन तीनों ही पार्टियों के परशुराम-परशुराम पुकारने से आखिर फायदा किसका होता दिख रहा है. जानकारों का मानना है कि इससे न तो इन तीनों विपक्षी पार्टियों का कोई फायदा होता दिख रहा है और न ही भाजपा का कोई नुकसान.

कमजोर है ब्राह्मण वोट बैंक का गणित

गिरि शोध संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शिल्पशिखा सिंह का मानना है कि ब्राह्मण समुदाय की कुल ताकत यूपी में 6-7 फीसदी है. वे कहती हैं कि मान लीजिए यदि ब्राह्मणों का भाजपा से मोहभंग भी हुआ तो पूरे के पूरे तो नहीं अलग हो जाएंगे. यदि आधे भी अलग हुए तो 3 फीसदी. इसमें भी यदि तीन पार्टियों कांग्रेस, सपा और बसपा में बंटे तो 1-1 फीसदी. इस 1 फीसदी से किसी का क्या भला होगा. दूसरी तरफ परशुराम को आईकॉन बनाकर वोट हासिल नहीं किए जा सकते. आईकॉन के जरिये बसपा ने सफल प्रयोग किया था. लेकिन, ये उस तबके में सफल हुआ था जो बहुत पहले से उपेक्षित रहा था. सवर्ण समाज को आईकॉन से नहीं लुभाया जा सकता है. ऐसा इसलिए कि उन्हें कभी पहचान की तलाश नहीं रही. दूसरी तरफ इनके लिए रिस्क ये है कि इससे भाजपा के पक्ष में वे तबके और भी मजबूती से खड़े होंगे जो ब्राह्मण समुदाय से नाराज रहते हैं. इसमें ठाकुरों से लेकर पिछड़े और दलित भी शामिल हैं. आखिर इन्हीं को जोड़कर तो भाजपा ने यूपी में अपार सफलता हासिल की है.

कांग्रेस, सपा और बसपा की वोट खींचने की अकुलाहटअसल में ये कांग्रेस, सपा और बसपा की वोट खींचने की अकुलाहट है, जिसका फायदा उन्हें बहुत कम ही मिलता दिख रहा है. हमें याद रखना चाहिए कि 2017 के यूपी चुनाव में भाजपा ने 40 फीसदी वोट हासिल किए थे. इसमें 2012 के मुकाबले 25 फीसदी का उछाल आया था. ये उछाल नरेन्द्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का तो रहा ही लेकिन, इसमें बड़ा योगदान अति पिछड़ों और गैर जाटव दलितों का भी रहा. ऐसे समुदायों के छोटे-छोटे नेताओं को अपने साथ जोड़कर भाजपा ने जिले-जिले में सपा और बसपा का समीकरण ही बदल डाला. तीनों पार्टियों के इस ब्राह्मण वोट बैंक की राजनीति पर चल पड़ने से भाजपा को भी इनपर अलग तरीके से हमला का मौका मिल गया है. भाजपा के प्रवक्ता मनीष शुक्ला ने कहा कि तीनों ही पार्टियां जाति की ओछी राजनीति करती रही हैं. कानपुर के बिकरू के विकास दुबे काण्ड पर अखिलेश यादव को देवेन्द्र मिश्रा की हत्या क्यों याद नहीं आती. उन्होंने एक भी शब्द संवेदना में नहीं बोले. दूसरी ओर कांग्रेस का चरित्र दिल्ली के बाटला हाउस काण्ड पर सभी के सामने आ ही चुका है. कौन नहीं जानता कि मायावती सरकार के समय कुछ खास लोगों को ही लाभ मिल पाया. बाकी सभी वंचित रहे. भाजपा सबका साथ सबका विकास के फार्मूले पर काम करती है.

ब्राह्मण वोट बैंक के लिए किसने क्या किया

कांग्रेस के जितिन प्रसाद ब्रह्म चेतना संवाद कार्यक्रम चला रहे हैं. ऊपर से उन्होंने सीएम योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखकर परशुराम जयंती पर छुट्टी बहाल करने की मांग की है. अखिलेश यादव ने सत्ता में आने पर हर जिले में परशुराम की मूर्तियां लगवाने की बात कही है. तो मायावती ने सत्ता में आने पर परशुराम के नाम पर अस्पताल और कम्यूनिटी सेंटर खोलने की बात कही है.

कैसे अचानक परशुराम के नाम पर शुरू हुई राजनीति

प्रदेश में योगी सरकार के बनने के बाद ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिन्हें लेकर सोशल मीडिया में ब्राह्मण विरोधी योगी सरकार का नारा बुलंद किया गया. लखनऊ के कमलेश तिवारी हत्याकांड की बात हो या फिर कानपुर में विकास दुबे का एनकाउंटर. सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे कैंपेन से बाकी पार्टियों को लगता है कि भाजपा का ये पारंपरिक वोट बैंक उससे नाराज है. इसी बहती गंगा में सभी हाथ धोने को आतुर हैं.



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